Battle of Karbala (करबला की जंग)
बुशरा अलवी
करबला की जंग 10 मोहर्रम सन 61 हिजरी 10 अक्तूबर 680 ई0 को हुई जिसको हम आशूरा की जंग के नाम से भी जानते हैं, यह जंग पैग़म्बरे इस्लाम के छोटे नवासे इमाम हुसैन और बनी उमय्या के दूसरे बादशाह यज़ीद के बीच करबला में हुई जो इस समय इराक़ का एक पवित्र और धार्मिक स्थल है। यज़ीद बिन मोआविया की तरफ़ से इस युद्ध का कारण इमाम हुसैन द्वारा बैअत न करना था जब्कि इमाम हुसैन यज़ीद की सत्ता को असंवैधानिक और ग़ैर शरई मानते थे जो इमाम हसन और यज़ीद के पिता मोआविया के बीच हुई संधि की शत्रों के विरुद्ध था, और दूसरी तरफ़ यज़ीद स्वंय भी मुसलमानों का ख़लीफ़ा बनने की योग्यता नहीं रखता था, क्योंकि वह मुसलमानों के विश्वासों के विरुद्ध शराबी, जुवारी, अय्याश था, तभी तो इमाम हुसैन ने कहा था कि जब ऐसा समय आ जाए कि यज़ीद जैसा व्यक्ति मुसमलानों का ख़लीफ़ा बन बैठे तो इस्लाम पर सलाम पढ़ लेना चाहिए।
बहरहाल यज़ीद की तरफ़ से बैअत की मांग के बाद इमाम हुसैन बैअत से इनकार कर देते हैं और हुसैन अपने छोटे से काफ़िले को लेकर मदीने से मक्का होते हुए दो मोहर्रम को कर्बला पहुँचते हैं और तीन मोहर्रम को ही उमरे सअद 4000 सिपाहियों के साथ कर्बला पहुँच जाता है, यहां तक की सात मोहर्रम को इमाम हुसैन और उनके साथियों यहां तक कि उनके बच्चों पर भी यज़ीद के सिपाहियों की तरफ़ से पानी बंद कर दिया जाता है, नौ मोहर्रम को शिम्र 4000 सिपाहियों के साथ उबैदुल्लाह बिन ज़ियाद की तरफ़ से एक पत्र लेकर करबला पहुँचता है जिसमें उमरे सअद को आदेश दिया गया था किस इमाम हुसैन से युद्ध करो औऱ उनका सर धड़ से अलग कर दो और अगर तुम यह नहीं कर सकते हो तो शिम्र को सेनापति बना दो।
दस मोहर्रम को इमाम हुसैन के साथी और उमरे सअद की सेना आमने सामने होती है, अबू मख़निफ़ के अनुसार इमाम हुसैन की सेना में 32 घुड़सवार और 40 पैदल सिपाही थे दूसरी तरफ़ उमरे सअद की सेना में लगभग 30000 के क़रीब सिपाही थे इस नाबराबर की लड़ाई में उमरे सअद के सिपाही इमाम हुसैन और उनकी हाथियों की निर्मम हत्या कर देते हैं, इमाम हुसैन की हत्या के बाद उमरे सअद के सिपाही, हुसैन के 72 साथियों की गर्दने उनके धड़ से जुदा कर देते हैं यहां तक कि उनको इमाम हुसैन के 6 महीने के बच्चे अली असग़र पर भी तरस न आया और उन्होंने उसका भी गला काट दिया और सभी के सरों को भालों की नोक पर टांक दिया गया, गर्दनें काटी जाने के बाद उमरे सअद के आदेश से सभी लाशों पर घोड़े दौड़ाए गए और उनको पामाल किया गया।
इमाम हुसैन के ख़ैमों को लूटा गया और उसके बाद उनमें आग लगा दी गई, एक व्यक्ति बिजदिल बिन सलीम ने इमाम हुसैन की अंगूठी पाने के लिए उनकी उगली काट दी, हर प्रकार के अत्यातार के बाद उमरे सअद की सेना ने कर्बला के शहीदों की लाशों को जलती ज़मीन पर छोड़ दिया जिनको तीन दिन के बाद बनी असद द्वारा दफ़्न किया गया।
उमरे सअद की सेना ने हुसैन और उनके साथियों की हत्या करने के बाद उनके काफ़िले की महिलाओं और बच्चों को क़ैदी बना लिया और उनको यज़ीद के पास शाम भेज दिया गया।
आज सारी दुनिया में बहुत से शिया, सुन्नी और दूसरी धर्मों के लोग मोहर्रम के महीने में इस ग़म की याद मनाते हैं, मजिलसे करते हैं, आँसू बहाते हैं और नौहा करते हैं और दस तारीख़ यानी आशूरा को पूरी दुनिया में ग़म के तौर पर मनाया जाता है और पैग़म्बर को उनके नवासे की दुखद हत्या पर श्रद्धांजली दी जाती है।
अगर कर्बला की जंग को सैन्य स्तर पर देखा जाए तो इसका कोई विशेष महत्व नहीं है क्योंकि जहां एक तरफ़ हज़ारों की सेना थी वही दूसरी तरफ़ इमाम हुसैन के कुछ गिने चुने साथी थे बल्कि इसको शायद जंग कहना ग़लत होगा लेकिन अक़ीदती और सियासी स्तर पर इस युद्ध का बहुत गहरा असर रहा है जो आज भी दिखाई देता है, आज कर्बला सच और झूठ, हक़ और बातिल, बुराई और अच्छाई के बीच युद्ध का प्रतीक है और लोग कर्बला का आईने में सच्चाई को परख़ रहे हैं, कर्बला की जंग का असर यह हुआ है कि जैसे ही बनी उमय्या द्वारा पैग़म्बर के नवासे की हत्या की गई वैसे की मुसलमानों के एक बड़े धड़े सामने उनकी हुकूमत की संवैधानिकता पर प्रश्नचिन्ह लग गया जिसके बाद यज़ीद की हुकूमत के विरुद्ध विद्रोह शुरू हो गए, इमाम हुसैन की उस ख़ूनी क़याम का प्रभाव आज भी हमको समाजों में दिखाई देता है कि जो भी समाज हुसैन से जुड़ा हुआ है वह कभी भी अत्याचारों और जुल्म को बर्दाश्त नहीं करता है।
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